कविता – कहीं देर न हो जाए पर्यावरण संरक्षण एक आवश्यकता

धरती को निगल लिया,
अब महताब की बारी है
वर्षो से जिस धरा पर ठहरा बशर,
उसे अब छोड़ने की तैयारी है,

ना कभी इस धरती को बराबर अधिकार दिया,
और ना ही उसे बचाने की ली जिम्मेदारी है,
बल्कि उसका हक बेच कर,
चलाता अपने ख़िदमत की दुकानदारी है,
धरती को निगल लिया,
अब महताब की बारी है

बशर तु इस धरा पर इतने जुल्म किये,
की लगता है तू बड़ा ही अत्याचारी है,
और जितने भी तूने इस अन्ज को नासूर जख्म दिए,
लगता है कि इंसानी पैदावार महामारी है,

नोच खारोच कर खा रहे हो सारे वन उपवन,
और कहते हो कि ये धरती माँ हमारी है,
धरती के रग रग मे तूने प्रदूषण के बीज बोये,
और कहते हो कि हम हरित-क्रांतिकारी है,
धरती को निगल लिया,
अब महताब की बारी है,

जिस महताब को सदियों से उक़्बा मानते है,
अब उसे तबाह करने का कलाम-ऎ-फत्वाह जारी है,
जो महताब शब में भी शमा रोशन करता है,
कम-ज़र्फ उसे बुझाने का तेरा प्रयास जारी है,

जिस महताब को देख स़ुखनवर लिखाता मोहबत के चार सफ,
अब उसी को मारने की ली सुपारी है,
बशर अपने ही गन्दगी को सुघना नहीं चाहता,
अब वही गन्दगी महताब पर भी फैलना काम जारी है,
धरती को निगल लिया,
अब महताब की बारी है,

जो हमने नफ़रत के बीज बोये है धरा पर,
वही बीज बोने के लिए महताब पर बनाई जा रही कियारी है,
ज़ीस्‍त जो बचा है इस मृत्युलोक में,
बशर कुल्ज़ुम-ए-खूँ बहाने की चलाई कटारी है,

एक अंधा कानून जो है यहाँ पर,
उसी अंधे को महताब पर लाने की तैयारी है,
लगता है कि महताब पर भी,
जुर्म का फैलाने का लिया ठेकेदारी है,
धरती को निगल लिया,
अब महताब की बारी है,

जो पहले महताब पर पहुचेगा,
वही वहाँ पर सरहद बनाने का उत्तराधिकारी है,
और जब बात उलझेगी वहाँ पर सरहद को लेकर,
तो फिर महताब पर कोई शिकार है, तो कोई शिकारी,

यू तो महताब पर अंतरिक्षयान से ही जाना,
पर बशर तो अपने निज स्वार्थ पर सवार होकर करता सवारी है,
और वहाँ पर भी दंगे-फ़साद का तिजारत करेगा,
क्योकि इंसानों का मजहब ही कारोबार और राजनीति का कारोबारी है,
धरती को निगल लिया,
अब महताब की बारी है,

रोहित मौर्य (मुसाफ़िर)

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