महँगाई का राक्षस कह़र बरपा रहा है,
झोला भर पैसों में मुट्ठी भर सामान आ रहा है ।
शक्कर की कीमत बढ़ते जा रही है,
चाय की मिठास घटते जा रही है;
तेल का दाम उछलते जा रहा है,
गरीबों का तेल निकलते जा रहा है;
पेट्रोल-डीजल ने तो आग लगा रखी है,
बढ़ती कीमतों ने जेबें जला रखी है;
पहले जितने में मिठाई आ जाती थी,
अब तो उतने में खटाई नहीं आ रही;
महँगाई है या बंदर की पूंछ,
दिनों दिन बस बढ़ते ही जा रही ।
इतनी महँगाई में कोई कैसे जिये,
कैसे खाये, कैसे पीये?
यदि महँगाई यूं ही कह़र बरपाते रही,
बचत व कमाई खाते रही,
तब वो दिन दूर नहीं जब गरीब खाना-पीना छोड़ देगा,
खाना-पीना तो छोड़ो साहब, जीना छोड़ देगा ।
© By महर्षि दुबे – होशंगाबाद, मध्य प्रदेश